गुलमोहर और मैं – भाग १

आज फ़िर पुकारा है …मेरी खिड़की के बाहर खड़े गुलमोहर ने मुझे . . .

“सिंदूरी छिटकाव किए बैठा हूं , सड़क पर लाल चादर बिछाई है , आ जाओ अब तो … कुछ देर मेरे पास… आओ तुम्हारी ख़ाली चुनर भर दूं मैं अपनी कलियों से , दिखाना है तुम्हें लाल रंग कितना फबता है तुम पर । माथे की सलवटों को आओ सहला दूं , थक गईं हैं ये भी खड़े खड़े। आकर तोड़ लो सपने जो टांगे थे तुमने मेरी टेहनियो पर …पक चुके हैं ये कब के । सफेद दुपट्टा जो पहने रखती हो वही पहन कर। आना । आज तुम्हे रंग कर वापस जो भेजना है ।”

” आती हूं …इतनी जल्दी भी क्या है ? काम पड़ा है अभी सारा घर का … इंतज़ार करो मेरा …इस बार वक़्त साथ ले कर आऊंगी कि वापस जाने की जल्दी ना हो । ”

सृजनात्मा

Published by srijanaatma

हां मैं लिखती हूं मेरी सारी सतहें झीनी साफ़, स्पष्ट दिखती हूं हां मैं लिखती हूं।

3 thoughts on “गुलमोहर और मैं – भाग १

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