गुलमोहर और मैं – भाग ३

आज रात गुलमोहर सोया नहीं । पूरे चांद की रात शायद उसे भी पसंद है । आज उसका मौन मुझ तक चलकर आया है और सुनाई भी दे रहा है …

” देखो चांद पूरा है , चांदनी में नहीं खेलोगी? मैं अक्सर सोचता था , तुम मेरी ओट से चांद क्यों देखती थीं । चाहत छुपाने की पुरानी आदत है क्या तुम्हे ? या फिर सफ़ेद पर लालिमा तुम्हे हमेशा से ही प्रिय थी । और वो तुम्हारी छत का हमसफ़र , जिसको एक दिन चांद पर तुमने अपना घर दिखाया था , उसने अपना घर कहां बसाया ? जब तुम चांद को मेरे फूलों की छलनी से निहारती थीं, तो मुझे भी वो कोई ख़ास अपना हि जान पड़ता था । क्या अब तुम चांद को नि:संकोच ,आंखो में आंखें डाल देखती हो ? “

” इतना वक़्त कहां है कि याद रख पाऊं आज चांद पूरा है या आधा ! वैसे …..उस छत वाले हमसफ़र को कभी कभी चांद वाले घर में ढूंढती हूं लेकिन वो खिड़कियों से पर्दे हटाता ही नहीं । तुम्हे क्या लगता है ? क्या वो भी चांद पर किसी गुलमोहर की ओट से मुझे तकता होगा ?”
सृजनात्मा
( मीनाक्षी शर्मा)

Published by srijanaatma

हां मैं लिखती हूं मेरी सारी सतहें झीनी साफ़, स्पष्ट दिखती हूं हां मैं लिखती हूं।

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