मेरी कोई अपनी ,
तुम्हरे आंगन की खिची दहलीज़ में एक विवर और दो सीढियां बाहर का रास्ता दिखाती हैं तुम्हें। मैं चाहती हूं तुम कभी उस पार जाकर देखो।
तुम आज भी नर्म मिट्टी को अपने मेंहदी रचे पांव से उड़ाओगी तो वो हवाओं में रंग भर देगी ।अपनी पायल को बेड़ियां मत बनने दो , ये बेधड़क छनकना चाहती हैं।
बारिश से नाता सिर्फ कपड़े भीगने से बचाने तक का हि क्यों बनाए बैठी हो ? अब जब मेघ बरसेंगे तो अपनी शंकाओं को बूंदों में बह जाने देना।
उस पेड़ पर कोयल रोज़ आकर कूकती है और याद दिलाती है तुम्हे की बेवजह गुनगुनाकर यूं हि मुस्कुरा देती थीं तुम । सुर – सरगम छेड़ो कोई सी , बेवजह गुनगुना कर चहक उठो ।
तुम्हारी आंखो में सपने जो टिमटिमाते थे कभी – वो सच होने की प्रतीक्षा में बैठे हैं , इस देहलीज़ पार । अपनी पलकों को क्षितिज पर टिकी रहने दो ।
तुम्हारे वात्सल्य से सीचां गया ये आंगन कितना हरा है -फ़िर तुम बंजर धरा सी क्यों दिख रही हो ? आले में पड़ा चाय का गिलास रोज़ ठंडा होता है तुम्हारा । आज गर्म रोटी खुद को भी परोसना ।
ढल रही हो नित शाम सी । देखो वो सिंदूरी बादल, जो आ ठहरा है तेरे अंगना – कुछ दूर नभ में घूम आओ उसके साथ ।
आज लांघ लो इन सीढ़ियों को यह याद रखते हुए कि यह लंघन होगा विश्वास का , प्रेम का – ख़ुद में , खुद से ।
तुम्हारी कोई अपनी ,
सृजनात्मा